सोमवार, 24 नवंबर 2008

सामंजस्य

तुम्हारा मुस्कुराना इस तरह
दिल में हलचल पैदा करता है
मानो
हरी-हरी कोंपलें निकलने
के लिए आतुर हों
और मैं उस पौध को
सींच रहा हूँ अनवरत
ताकि
कोंपलें निकलती रहें
लगातार, लगातार।

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शनिवार, 15 नवंबर 2008

कविता

यह कविता मेरे मित्र विवेक गुप्ता के लिए उस समय हुई थी जब वे देवास से स्थानांतरित होकर इंदौर जा रहे थे। वे जब देवास आये थे तब हम लोगों ने मिलकर साहित्य के लिए बहुत काम किया था। उनके जाने से एक खालीपन आ गया था। वे आजकल इंदौर में है।

विचार

वह गया तब सोचा गया
अद्भुत विचार था

वह एक सोता जो फूटा था
हमारे भीतर

हमारे पास कुछ नहीं था अपना
सिवा खालीपन के
जिसे तरलता से भरा था उसने

वह छोड़ गया है यहाँ पैरों के निशान
जिन्हें कई शताब्दियों की गर्द
मिटाने की कोशिश करेगी

बुला रहे हैं वे निशान उन लोगों को
है नहीं जिनके पास
ठहरा हुआ सच

वह जहाँ से उठा था
वहां ठहरा नहीं है कुछ
चिंगारी दबी है वहां
वह फिर से लौटेगा
आग के साथ
हमारे भीतर बाकी है हवा अभी
उसे देने के लिए धौंकनी।

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शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

मिठास

मुझे दु:ख हुआ बौराते ही झर गए आम
ख़ुशी होती यदि आम बनकर

वे चढ़ जाते सबकी जुबान पर
तब मुझे अच्छा भी लगता
माँ आमों का रस निकालकर गुठलियाँ बो देती बाड़े में

माँ कराती इंतजार
पहली बारिश के बाद उनके उगने का
वृक्ष का सपना इन गुठलियों के भरोसे

गुठलियाँ उगते ही
मैं चुपके से उखाड़ कर
बना लेता बाजा

बाजा अपनी मिठास से भर देता माहौल
भर जाती मिठास
प्रथ्वी पर मौजूद तमाम अनुओ में

पोरों से होती हुई कोशिकाओ तक में

यह एक स्मृति जो समय के साथ
सपने में बदल गई .

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गुरुवार, 13 नवंबर 2008

बीज

उठो हवा
धरती से आसमान की ओर बहो
बहो कि तुम्हारी तासीर है यह

कुलबुला रहे हैं बीज
ले चलो
बिखेर दो
इस धरती के कोने-कोने में

विचारों की काटना चाहता हूँ फसल
तुम्हारे अंतस की पीड़ा
चाहता हूँ बांटना

आग बनकर
फैल जाना चाहते हैं बीज.

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मंगलवार, 11 नवंबर 2008

बाज़ार

बहुत चमकदार है यहाँ सब कुछ
बिजली की गति से भर गया अंग-अंग
जीवन के तमाम सुख आते हैं चलकर बाज़ार से

एसी चकाचौंध कि
प्रकाश के भीतर जो अन्धकार का एक बिंदु है
समा रहा है उसी में सब कुछ
चीटों के पीछे असंख्य चीटें
चले जा रहे हैं अंधाधुंध

सड़क पर फिसलते हुए लोग
पत्थर के छोटे-छोटे टुकडों से लहूलुहान
होते हुए भी हैं बेखबर

एक छोटा सा सुख इस कदर करता है परेशान
कि पास से गुजर गया हो
कोई चीखता हुआ
कानों पर पड़े हैं सूचनाओं के पर्दे

फेहरिस्त लिए हुए हाथों में
घूम रहा है बाज़ार
दे रहा है हर घर दस्तक .

समय की नोक हमारी गर्दन पर

क्या हो गया है मेरे इस गाँव को
और यहाँ के लोगों को
इनके भीतर बहता था एक झरना लगातार
इनके गीतों में हुआ करता था रसीलापन
छोटी-छोटी खुशियों पर जमता था बड़ा मजमा
येसे कौन-से समय में अटक गया है यह
यह घड़ी की कौन सी सुई के साथ चलने लगा है

यह समय हंसने का नहीं
पसीने में नहाये
पत्थर तोड़ते लोगों में आग को बचाने का
भय से लड़ने
और समूह में रोते लोगों के बीच हिम्मत भरने का है
बैलों की तरह घाने में चलने का नहीं
भैसों की तरह खलिहानों में मुंह मारने का भी नहीं

यह तारों से भरी रात का समय भी नहीं
घुप्प अँधेरी रातों में
चकमक पत्थरों के टकराने का समय है

किसी एक रंग का नहीं
दूसरे का भी नहीं
यह कई रंगों को
रंगों की तरह देखने का समय है

यह एसा तीखा समय है जिसकी नोंक
हमारी गर्दन पर चुभ रही है .

खेतों में हल चला कंठ से गीत निकला.

कितना अच्छा लगता है जब किसी किसान को हल चलाते देखते है
बेलों के गले में घुंघरू की आवाज के साथ
किसान अपनी आवाज मिलाता है
दोनों आवाज जब मिलती है
हल की फाल की नोक पर बेठ जाती है
mitti में samakar उसे upajavu banati है

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