रविवार, 4 अक्तूबर 2009

नदी


मेरे भीतर एक नदी बहती हुई
उसके शीतल जल से

हहराता हुआ एक पेड़ घना
हवा के झोंकों से हिलता

वहीं किनारे पर
मिट्टी गाँव की
बस चुकी है फेफडों में मेरे


एक कुम्हार बनाता है घड़ा
नदी से भरता घड़ा
बिल्कुल ठंडा और सुगंध से भरा पानी
जिसे पीते ही गलने लगती है प्यास
उदास चहरे
पपद्दाते होठों पर
सुकून की छाया तैरने लगती है

नदी मेरे भीतर पैदा करती है एक संसार ।

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