रविवार, 22 अगस्त 2010

सुनाऊंगा कविता

शहर के आखिरी कोने से निकालूँगा
और लौट जाऊंगा गाँव की ओर
बचाऊंगा वहां की सबसे सस्ती
और मटमैली चीजों को
मिट्टी की ख़ामोशी से चुनूंगा कुछ शब्द

बीजों के फूटे हुए अँखुओं से
अपनी आँखों के लिए
लूँगा कुछ रोशनी

पत्थरों की ठोकर खाकर
चलना सीखूंगा
और उन्हें दूंगा धन्यवाद
उनके मस्तक पर
लगाऊंगा खून का टीका

किसान जा रहे होंगे
आत्महत्या के रास्ते पर
तब उन्हें रोकूंगा
सुनाऊंगा अपनी सबसे अंतिम
और ताजा कविता
वे लामबंद हो चल पड़ेंगे
अपने जीवन की सबसे दुरूह पगडंडी पर ।

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