मंगलवार, 19 मई 2009

मैं इन दिनों बहुत डरा हुआ हूँ



मैं बहुत डरा हुआ हूँ इन दिनों

यह डर कविता लिखने से पहले का है



इसे लिखते-लिखते ही हो सकता है मेरा क़त्ल

और कविता रह जाये अधूरी

या ऐसा भी हो कि इसे लिखूं

और मारा जाऊँ



यह भी हो सकता है कि कविता को सुसाइड नोट में तब्दील कर दिया जाये

आज तक जितने भी राष्ट्रवाद के गौरव गान लिखे गये

वे उसी राष्ट्र के सुसाइड नोट हैं



मेरा यह डर इसलिए भी है कि

वे इस छद्म को देशभक्ति या बलिदान कि शक्ल में करेंगे पेश

उनकी उंगलियाँ कटी होंगी सिर्फ़

और वे लाशों का ढेर लगा देंगे

गायी जाएँगी विरुदावलियाँ



इस खौफनाक समय से आते हैं निकलकर

डरावनी लिपियों से गुदे हाथ

जो दबाते हैं गला

मेरे डर का रंग है गाढा

जिसको खुरचते हैं उनके आदिम नाखून

मैं रोने को होता हूँ

यह रोना ही मेरी कविता है ।






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