रविवार, 22 अगस्त 2010

सुनाऊंगा कविता

शहर के आखिरी कोने से निकालूँगा
और लौट जाऊंगा गाँव की ओर
बचाऊंगा वहां की सबसे सस्ती
और मटमैली चीजों को
मिट्टी की ख़ामोशी से चुनूंगा कुछ शब्द

बीजों के फूटे हुए अँखुओं से
अपनी आँखों के लिए
लूँगा कुछ रोशनी

पत्थरों की ठोकर खाकर
चलना सीखूंगा
और उन्हें दूंगा धन्यवाद
उनके मस्तक पर
लगाऊंगा खून का टीका

किसान जा रहे होंगे
आत्महत्या के रास्ते पर
तब उन्हें रोकूंगा
सुनाऊंगा अपनी सबसे अंतिम
और ताजा कविता
वे लामबंद हो चल पड़ेंगे
अपने जीवन की सबसे दुरूह पगडंडी पर ।

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रविवार, 4 अक्तूबर 2009

नदी


मेरे भीतर एक नदी बहती हुई
उसके शीतल जल से

हहराता हुआ एक पेड़ घना
हवा के झोंकों से हिलता

वहीं किनारे पर
मिट्टी गाँव की
बस चुकी है फेफडों में मेरे


एक कुम्हार बनाता है घड़ा
नदी से भरता घड़ा
बिल्कुल ठंडा और सुगंध से भरा पानी
जिसे पीते ही गलने लगती है प्यास
उदास चहरे
पपद्दाते होठों पर
सुकून की छाया तैरने लगती है

नदी मेरे भीतर पैदा करती है एक संसार ।

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गुरुवार, 6 अगस्त 2009

भाई प्रमोद उपाध्याय का यूँ चले जाना

अभी -अभी बहुत बुरी ख़बर मुझे मिली और मैं यहाँ लिखने बेठ गया हूँ । मेरा पूरा शरीर यहाँ तक कि दिमाग भी सुन्न पड़ गया है ।
श्री प्रमोद उपाध्याय कवि और नवगीतकार थे । देवास में रहते थे और हमारे बहुत दमदार साथी थे । अभी रात लगभग ११.५० बजे उनका ५९ वर्ष कि उम्र में निधन हो गया । बहुत बीमार थे । कल ही मैं उन्हें बॉम्बे हॉस्पिटल में दोपहर को भरती करवाकर आया । डॉ अस्मित चौधरी ने उनकी हालत पर चिंता जताई । पहले भी उन्हीं का इलाज चला था । आज याने ०६.०८.०९ को उनको डॉ ने डायलिसिस पर रखा था। आज भी शाम को ६ बजे मैं इंदौर से उनको देखकर आया था । उनके नव गीत बहुत ही उम्दा है। अभी मैं उनके बारे में ज्यादा कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हूँ । उनका मुझसे बहुत प्रेम था । हमारा एक बहुत जिंदादिल साथी हमें छोड़ कर चला गया ।
उन्हें हमारी और से अश्रुपूरित shrddhanjali ।

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मंगलवार, 19 मई 2009

मैं इन दिनों बहुत डरा हुआ हूँ



मैं बहुत डरा हुआ हूँ इन दिनों

यह डर कविता लिखने से पहले का है



इसे लिखते-लिखते ही हो सकता है मेरा क़त्ल

और कविता रह जाये अधूरी

या ऐसा भी हो कि इसे लिखूं

और मारा जाऊँ



यह भी हो सकता है कि कविता को सुसाइड नोट में तब्दील कर दिया जाये

आज तक जितने भी राष्ट्रवाद के गौरव गान लिखे गये

वे उसी राष्ट्र के सुसाइड नोट हैं



मेरा यह डर इसलिए भी है कि

वे इस छद्म को देशभक्ति या बलिदान कि शक्ल में करेंगे पेश

उनकी उंगलियाँ कटी होंगी सिर्फ़

और वे लाशों का ढेर लगा देंगे

गायी जाएँगी विरुदावलियाँ



इस खौफनाक समय से आते हैं निकलकर

डरावनी लिपियों से गुदे हाथ

जो दबाते हैं गला

मेरे डर का रंग है गाढा

जिसको खुरचते हैं उनके आदिम नाखून

मैं रोने को होता हूँ

यह रोना ही मेरी कविता है ।






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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

मैं यहाँ से जा रहा हूँ

मैं यहाँ से जा रहा हूँ
बिना कुछ लिए
अपने पूरे वजूद के साथ जाना चाहता हूँ
लेकिन बहुत कुछ छूट जाता है यहाँ
और मैं जाते हुए भी
नहीं जा पा रहा हूँ पूरी तरह से

मेरे साथ नहीं जाएँगी वे
बहुत सी चीजें
जो जुड़ी रही मुझसे
ताउम्र आती रही मेरे काम
घिसती रही मेरे साथ-साथ
कुछ इच्छा से
कुछ अनिच्छा से

मेरा जाना स्थगित नहीं है
लौटना जरूर संदेहास्पद है
मेरा सबकुछ मुझसे रहा यहीं
पड़ा रह जाएगा
कुछ दूसरों के काम आएगा
कुछ टूट जाएगा
पड़ा रहेगा कबाड़ में
कुछ जला दिया जाएगा
और धुएं में फैल जाएगा

साँस लेकर छोड़ी गई हवा
पेड़ों में जीवित रहेगी
इस तरह बचा रहेगा मेरा होना
यहाँ इस पृथ्वी पर ।

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मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

सत्यनारायण पटेल की कहानियो पर

सबसे पहले सत्यनारायण पटेल की कहानी नकारो की बात करें तो यह कहानी अपने रचाव की वजह से दिलचस्प है .कहानी में वे जिस सत्य को सामने लाते हैं वह यह की स्त्रियों का जो वर्ग हे उसमे किस तरह से वे एक दूसरे के प्रति क्रूर हो जाती है .उनका असली सघर्ष क्या है उससे वे भटक जाती है . जिस तरह से वे एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगी होती है यह हमारे समाज का कटु सत्य है . भाषा का प्रवाह हमें बाँध लेता है .लेकिन फिर भी संवाद में कुछ खटकता है . या कहानीकार कहीं-कहीं अपनी तरह से कहानी को turn करता है जो कहानी को कमजोर करता है . जहाँ तक स्त्रियों की बात है ऐसा लगता है की अब उनके पास सिर्फ़ गालियाँ देने और तमाशा देखने के अलावा कुछ बचता नही है . सत्यनारायण अपनी दूसरी कहानियो में जो संघर्ष गाथा स्त्रियों के माध्यम से कहते हैं ठीक इससे उलट वे इसे कमजोर भी करते हैं .गाँव में प्रचलित एक घटना को वे अपनी कहानी बनाते है .ठीक है बहुत अच्छी बात है , लेकिन इसमे यह सावधानी बरतनी चाहिए की हमारे कहे को कोई भी हमारे विरूद्ध इस्तेमाल न कर ले जाए . यह हमारी कमजोरी भी हो सकती है . सत्यनारायण के संग्रह पर शशिभूषण ने अच्छे से लिखा है . जो prdeepindore.blogspot.com पर post किया गया है। रंगरूट एसी प्रेम कहानी है जिसे बहुत खुबसूरत ढंग से लिखा गया है जिसमे कहानीकार अपने कर्तव्य जो आजीविका का हो या माँ के प्रति हो को बहुत समझ के साथ चुनता है .यह भी एक तरह का बड़ा संघर्ष है . गाँव और कांकड़ के बीच कहानी में बालू पटेल लोगों के बीच का ही व्यक्ति है । लेकिन उसकी बीमारी जो की एक अस्पर्श्य बीमारी के रूप में अन्धविश्वास है की वजह से उपेक्षित रहता है जो अपने को असुरक्षित पता है और दलितों के बीच अपने सुरक्षित करता है । पहली बात तो यह की वह यदि इस बीमारी से ग्रसित नही होता तो क्या वह दलितों के पक्ष में होता ? दूसरी बात यह की क्या दलितों में इस बीमारी को लेकर कहीं ज्यादा अन्धविश्वास नही होगा ? यह अलग बात है की सत्यनारायण कहानी को खूबी के साथ कह ले जाते हैं और हमारे गले भी उतार देते हैं । लेकिन सच्चाई ? बिरादरी मदारी की बंदरिया कहानी अपने विस्तार के कारन ढीली है लेकिन कथ्य मजबूत है .पनही कहानी निसंदेह उम्दा है . बोंदाबा कहानी एक बेहतरीन कहानी है . भेम का भेरू कहानी बुनावट और संवेदना के स्तर और एक घुम्मकड़ जाति के भीतर हमें ले जाती है .जिसमे रच बस जाते हैं . परन्तु अंत अस्वाभाविक और नाटकीय है जीवन में इस तरह से fesale और दिमाग नही बदलता है .

सोमवार, 12 जनवरी 2009

शब्द

हमारे पास शब्दों की कमी

बहुत यही वजह है कि

बचा नहीं सकते कुछ भी एसा

कि जैसे चिड़िया की चहचहाहट

सब कुछ होते हुए भी शब्दों का न होना

कुछ नहीं होने जैसा है

दीवार है हमारे पास

जिसे खड़ा करते हम अपने चारों और

जीवन के भीतर एसा कोई उजास नहीं

जिसके बल पर खड़ी की जा सकती हो कोई इमारत

न कोई एसा ठिकाना कि आसपास महसूस हो जीवन

एसी कोई आवाज भी नहीं

जिसकी धमक से खिंचा चला आए कोई

और सुने हमें धरती पर जीवन रहने तक

शब्दों के बिना हम कैसे सुना सकते हैं जीवनराग

कैसे बताएं कि तितली का

रंग और सुगंध से बहुत गाढा रिश्ता है

जैसे शब्द का भाषा और संस्कृति से

बिना शब्दों के मनुष्यता से तो बाहर होते ही हैं

भाषा की दुनिया में भी नहीं हो सकते दाखिल ।

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