पिता की मृत्यु पर बेटी का रुदन
( जब भी कोई मरता है, सबसे पहले दिए गए दु:ख फैलते हैं आसपास )
आप पेड़ थे और छाँव नहीं थी मेरे जीवन में
पत्ते की तरह गिरी आपकी देह से पीलापन लिए
देखो झांककर मेरी आत्मा का रंग हो गया है गहरा नीला
कभी पलटकर देखा नहीं आपने
नहीं किया याद
आप मुझसे लड़ते रहे समाज से लड़ने के बजाय
मैं धरती के किनारे पर खड़ी क्या कहती आपसे
धकेल दी गई मैं, ऐसी जगह गिरी
जहाँ माँ की कोख जितनी जगह भी नहीं मिली
आप थे इस दुनिया में
तब भी मेरे लिए नहीं थी धरती
और माँ से धरती होने का हक छीन लिया गया है कबसे
छटपटा रही थी हवा में
देह की खोह में सन्नाटा रौंद रहा था मुझे
और अपनी मिटटी किसे कहूं , किसे देश
कोई नहीं आया था मुझे थामने
जीवन इतना जटिल
कितने छिलके निकालेंगे दु:खों के
उसके बाद सुख का क्या भरोसा
कौन से छिलके की परत कब आंसुओं में डुबो दे
हमारी सिसकियों से हमारे ही कान के परदे फट जाएँ
ह्रदय का पारा कब नाभी में उतर आये
मोह दुश्मन है सबका
मौत आपकी नहीं मेरी हुई है
हुई है तमाम स्त्रियों की
यह आपकी बेटी विलाप कर रही है निर्जीव देह पर
चीत्कार पहुँच रही है ब्रह्मांड में
जहाँ पहले से मौजूद है कई बेटियों का हाहाकार
और कोई सुन नहीं पा रहा है .
लेबल: कविता