नदी
उसके शीतल जल से
हहराता हुआ एक पेड़ घना
हवा के झोंकों से हिलता
वहीं किनारे पर
मिट्टी गाँव की
बस चुकी है फेफडों में मेरे
एक कुम्हार बनाता है घड़ा
नदी से भरता घड़ा
बिल्कुल ठंडा और सुगंध से भरा पानी
जिसे पीते ही गलने लगती है प्यास
उदास चहरे
पपद्दाते होठों पर
सुकून की छाया तैरने लगती है
नदी मेरे भीतर पैदा करती है एक संसार ।
9 टिप्पणियाँ:
बहादुर भाई यह कविता विशिष्ट ना होते हुए भी बेहद खूबसूरत है.
इस नदी को सूखने मत देना...
सुन्दर भावाभिव्यक्ति
बढ़िया कविता है । अंतिम छह पंक्तियो में थोड़ा शिल्पगत काम करना होगा कुछ इस तरह ..
एक कुम्हार बनाता है घड़ा
नदी से भरता है
ठंडा और सुगंध से भरा पानी
पीते ही गलने लगती है प्यास
उदास चहरे
पपड़ाये होठों पर
तैरने लगती है
सुकून की छाया
पीते ही गलने लगती है प्यास ...nice.
Prakriti me zeevan dhundne ki ek sundar koshish.
bahut achchhi kavita hai.
badhai.
kalidas
Swagat hai patel sahab
anand a gaya
छोटी पर उम्दा रचना है. बधाई.
नदी मेरे भीतर पैदा करती है एक संसार ।
Kabhi kabhi ek pankti me hi nadi kavita ho jati hai
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