मैं इन दिनों बहुत डरा हुआ हूँ
मैं बहुत डरा हुआ हूँ इन दिनों
यह डर कविता लिखने से पहले का है
इसे लिखते-लिखते ही हो सकता है मेरा क़त्ल
और कविता रह जाये अधूरी
या ऐसा भी हो कि इसे लिखूं
और मारा जाऊँ
यह भी हो सकता है कि कविता को सुसाइड नोट में तब्दील कर दिया जाये
आज तक जितने भी राष्ट्रवाद के गौरव गान लिखे गये
वे उसी राष्ट्र के सुसाइड नोट हैं
मेरा यह डर इसलिए भी है कि
वे इस छद्म को देशभक्ति या बलिदान कि शक्ल में करेंगे पेश
उनकी उंगलियाँ कटी होंगी सिर्फ़
और वे लाशों का ढेर लगा देंगे
गायी जाएँगी विरुदावलियाँ
इस खौफनाक समय से आते हैं निकलकर
डरावनी लिपियों से गुदे हाथ
जो दबाते हैं गला
मेरे डर का रंग है गाढा
जिसको खुरचते हैं उनके आदिम नाखून
मैं रोने को होता हूँ
यह रोना ही मेरी कविता है ।
लेबल: कविता
3 टिप्पणियाँ:
चलो इतने दिनों बाद सही आये तो…
यह कविता पहले संगमन की गोष्ठी और फिर अकार में पढी थी… मेरी असहमतियां हैं इस पर लेकिन वह फिर कभी।
अरसे बाद लौटे..... स्वागत है,
कविता भी पोस्ट की..... शुक्रिया,
पर कविता पर कुछ अभी कुछ कहना थोड़ा मुश्किल है
कुछ अच्छा भी लगा और कुछ ..... मुझे और पढने/समझने की ज़रूरत है।
अरसे बाद लौटे तो…..... स्वागत है,
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